Friday, August 31, 2018

100 दिनों में 50 मंदिर, मस्जिद और चर्च गए कुमारस्वामी

कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने 100 में 50 का स्कोर बनाकर एक नया रिकॉर्ड बनाया है. ये सुनने में क्रिकेट मैच के स्कोरकार्ड जैसा लग सकता है लेकिन है नहीं.
इसका मतलब ये है कि उन्होंने जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन वाली अपनी सरकार के पहले 100 दिनों के भीतर 50 मस्जिदों, चर्चों और मंदिरों में दर्शन किए.
कुमारस्वामी के समर्थक और सहयोगी, जो ख़ुद भी काफ़ी धार्मिक हैं, वो भी इससे हैरान हैं.
मुख्यमंत्री 100 दिनों में 47 मंदिरों, एक दरगाह, एक मस्जिद और एक चर्च जा चुके हैं.
ऐसा नहीं है कि कुमारस्वामी हर दूसरे दिन मंदिर गए बल्कि ऐसा हुआ कि कई बार वो एक दिन में दो, तीन या चार मंदिर गए.
धार्मिक स्थलों पर जाने में उनकी सक्रियता कर्नाटक के सियासी हलकों में चर्चा का विषय बनी हुई है. बहुत से लोग उनकी आलोचना भी कर रहे हैं.
इन दिनों बेंगलुरु में सबसे ज़्यादा सुना जाने वाला कमेंट है- हम भी धार्मिक हैं लेकिन रोज़ कूद-कूदकर मंदिर नहीं चले जाते.
तो अब सवाल ये है कि कुमारस्वामी जैसे नेता मंदिरों-मस्जिदों में इतना क्यों जाते हैं?
संस्कृत के प्रोफ़ेसर एमए अलवर कहते हैं, "उन्हें अपनी सत्ता छिनने का डर होता है और जब इंसान का भविष्य अनिश्चित होता है तो हम मनोवैज्ञानिक तौर पर कोई दैवीय मदद ढूँढते हैं. वो किसी संन्यासी के पास जा सकते हैं, किसी दरगाह में जा सकते हैं या किसी चर्च में जा सकते हैं."
केरल के ज्योतिष विष्णु पूचक्कड़ के मुताबिक़, "जब लोग दुविधा में होते हैं तो किसी गुरु या ज्योतिष के पास जाते हैं. पुराने ज़माने में राजा भी अपने गुरु या ज्योतिषी से सलाह लेते थे. ठीक उसी तरह नेता मौजूदा वक़्त में पूजा-पाठ करते हैं."
हालांकि, विष्णु ये भी मानते हैं कि आज भले ही लोग ज़्यादा पूजा-पाठ करने लगे हों, लेकिन सब कुछ बहुत व्यावसायिक हो गया है.
उन्होंने कहा, "शास्त्रों की सही ढंग से व्याख्या होनी बहुत ज़रूरी है. ज्योतिषी आपको सलाह दे सकता है लेकिन आपके अंदर आस्था होनी ज़रूरी है."
विष्णु कहते हैं, "कुछ लोग सिर्फ़ डर की वजह से मंदिर-मस्जिद जाते हैं. कुछ लोग सही रास्ता ढूंढने जाते हैं. फल दोनों को ही मिलता है. डरे हुए लोगों को मानसिक शांति मिलती है और रास्ता ढूंढने वालों को रास्ता. लेकिन किसी भी प्रार्थना के पूरे होने के लिए समर्पण होना चाहिए. जो पूजा कराता है उसके मन में भी आस्था होनी बहुत ज़रूरी है."
लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं होता. विष्णु के मुताबिक़, इंसान को अपनी बुद्धि से सही फ़ैसले भी लेने चाहिए.
डॉ. श्रीधर मूर्ति कहते हैं, "नेताओं में असुरक्षा की भावना बहुत ज़्यादा होती है. लेकिन धार्मिक क्रिया को किसी तरह परिभाषित नहीं किया जा सकता. मंदिर जाने को धार्मिक कैसे कहा जा सकता है? भगवान तो सर्वव्यापी हैं, मेरे घर में भी हैं. तो मुझे मंदिर, मस्जिद या चर्च क्यों जाऊं?"
विष्णु भी डॉ. मूर्ति से सहमति जताते हुए कहते हैं, "भगवान हमारे दिलों में हैं."
कुमारस्वामी के बारे में पूछने पर विष्णु कहते हैं, "मैं कह नहीं सकता कि कुमारस्वामी के मन में क्या है. पहले राजा अपने राज्य के लिए पूजा-पाठ करते थे. आज भी ये राज्य के लिए हो सकता है. भगवान की पूजा कई रूपों में हो सकती है."
कुमारस्वामी का इस तरह मंदिर-मंदिर घूमना इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि वह अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की तरह बिल्कुल भी नहीं थे. एचडी देवगौड़ा की छवि एक धार्मिक और ज्योतिष में विश्वास रखने वाले नेता की रही है.
कुमारस्वामी के कुछ क़रीबी सहयोगियों ने नाम ज़ाहिर न होने की शर्त पर बताया था कि उन्होंने कसम खाई थी कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री बनने लायक सीटें नहीं मिलीं तो वो राजनीति छोड़ देंगे.
ख़ुशकिस्मती से कर्नाटक चुनाव के नतीजों में नाटकीय बदलाव देखने को मिला और कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया.
उनके एक क़रीबी ने गोपनीयता की शर्त पर कहा, "मुझे लगता है कि इस घटना के बाद उनमें काफ़ी बदलाव हुआ. उन्होंने सभी धार्मिक जगहों पर जाना शुरू कर दिया."

Wednesday, August 29, 2018

'मानवाधिकार कार्यकर्ताओं' की गिरफ़्तारी: जो अब तक पता है

णे पुलिस ने मंगलवार को पाँच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया जबकि अदालत के आदेश की वजह से इनमें से एक को घर में नज़रबंद कर दिया गया.
ये हैं वामपंथी विचारक और कवि वरवर राव, वकील सुधा भारद्वाज, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंज़ाल्विस.
पुलिस अधिकारी गिरफ़्तार लोगों को 'माओवादी हिंसा का दिमाग़' बता रहे हैं.
पुलिस का ये भी कहना है कि भीमा-कोरेगाँव में हुई हिंसा के लिए भी इन लोगों की भूमिका की जाँच की जा रही है.
ये कार्रवाई आतंक निरोधी कानून और भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए, 505 (1)(बी), 117, 120 (बी) और 34 के तहत की गई.
  • इस मामले में इतिहासकार रोमिला थापर और चार अन्य लोगों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है. याचिका में गिरफ़्तार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रिहाई की मांग की गई है.
  • याचिका में मामले की स्वतंत्र जाँच कराने की मांग की गई है और कहा गया है कि गिरफ़्तारियाँ विरोध की आवाज़ को दबाने की कोशिश है.
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले में मीडिया रिपोर्ट्स पर स्वत: संज्ञान लेते हुए कहा है कि आयोग को ऐसा लगता है कि इस मामले में प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है. इस कारण ये मानवाधिकार उल्लंघन का मामला हो सकता है.
  • एनएचआरसी ने महाराष्ट्र के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी करके चार सप्ताह के अंदर रिपोर्ट देने को कहा है.पिछले साल 31 दिसंबर को यलगार परिषद का आयोजन किया गया था. इस परिषद में माओवादियों की कथित भूमिका की जांच में लगी पुलिस ने कई राज्यों में सात कार्यकर्ताओं के घरों पर छापेमारी की और पांच कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया.
    इस परिषद का आयोजन पुणे में 31 दिसंबर 2017 को किया गया था और अगले दिन 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में दलितों को निशाना बनाकर बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी. महाराष्ट्र में पुणे के क़रीब भीमा कोरेगांव गांव में दलित और अगड़ी जाति के मराठाओं के बीच टकराव हुआ था.
    भीमा कोरेगांव में दलितों पर हुए कथित हमले के बाद महाराष्ट्र के कई इलाकों में विरोध-प्रदर्शन किए गए. दलित समुदाय भीमा कोरेगांव में हर साल बड़ी संख्या में जुटकर उन दलितों को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने 1817 में पेशवा की सेना के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अपने प्राण गंवाए थे.ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश सेना में शामिल दलितों (महार) ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों (पेशवा) को हराया था. बाबा साहेब आंबेडकर खुद 1927 में इन सैनिकों को श्रद्धांजलि देने वहां गए थे.
    मंगलवार सबेरे छापेमारी के बाद जो लोग गिरफ़्तार किए गए, उनमें हैदराबाद से वरवर राव, मुंबई में वरनॉन गोंज़ाल्विस और अरुण फ़रेरा, फ़रीदाबाद में सुधा भारद्वाज और नई दिल्ली में गौतम नवलखा शामिल हैं. रांची में स्टैन स्वामी और गोवा में आनंद तेलतम्बदे के घर पर भी छापा मारा गया.
    सुधा भारद्वाज एक वकील और ऐक्टिविस्ट हैं. वो दिल्ली के नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में गेस्ट फ़ैकल्टी के तौर पर पढ़ाती हैं. सुधा ट्रेड यूनियन में भी शामिल हैं और मज़दूरों के मुद्दों पर काम करती हैं. उन्होंने आदिवासी अधिकार और भूमि अधिग्रहण पर एक सेमिनार में हिस्सा लिया था. वो दिल्ली न्यायिक अकादमी का भी एक हिस्सा हैं.
    वरवर राव
    वरवर पेंड्याला राव वामपंथ की तरफ़ झुकाव रखने वाले कवि और लेखक हैं. वो 'रेवोल्यूशनरी राइटर्स असोसिएशन' के संस्थापक भी हैं. वरवर वारंगल ज़िले के चिन्ना पेंड्याला गांव से ताल्लुक रखते हैं. उन्हें आपातकाल के दौरान भी साज़िश के कई आरोपों में गिरफ़्तार किया गया था, बाद में उन्हें आरोपमुक्त करके रिहा कर दिया था.
    वरवर की रामनगर और सिकंदराबाद षड्यंत्र जैसे 20 से ज़्यादा मामलों में जांच की गई थी. उन्होंनें राज्य में माओवादी हिंसा ख़त्म करने के लिए चंद्रबाबू सरकार और माओवादी नेता गुम्माडी विट्ठल राव ने मिलकर मध्यस्थता की थी. जब वाईएस राजशेखर रेड्डी सरकार ने माओवादियों ने बातचीत की, तब भी उन्होंने मध्यस्थ की भूमिका भी निभाई.
    गौतम नवलखा एक मशहूर ऐक्टिविस्ट हैं, जिन्होंने नागरिक अधिकार, मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकार के मुद्दों पर काम किया है. वे अंग्रेज़ी पत्रिका इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में सलाहकार संपादक के तौर पर भी काम करते हैं.
    नवलखा लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था पीपल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) से जुड़े हैं. नवलखा ने पीयूडीआर के सचिव के तौर पर भी काम किया है और इंटरनेशनल पीपल्स ट्राइब्यूनल ऑन ह्यूमन राइट्स ऐंड जस्टिस इन कश्मीर के संयोजक के तौर पर भी काम किया है.
    अरुण फ़रेरा
    मुंबई के बांद्रा में जन्मे अरुण फ़रेरा मुंबई सेशंस कोर्ट और मुंबई हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं. वो अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट और देशद्रोह के अभियोग में चार साल जेल में रह चुके हैं.
    अरुण फ़रेरा इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ पीपल्स लॉयर्स के कोषाध्यक्ष भी हैं.
    फ़रेरा भीमा-कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में गिरफ़्तार हुए दलित कार्यकर्ता सुधीर धावले के पक्ष में भी अपनी आवाज़ उठाते रहे हैं. मुंबई के गोरेगांव और जोगेश्वरी में 1993 में हुए दंगों के पीड़ितों के बीच काम करने के बाद, अरुण फ़रेरा का रुझान मार्क्सवाद की ओर बढ़ा था. इन दंगों के बाद उन्होंने देशभक्ति युवा मंच नाम की संस्था के साथ काम करना शुरू कर दिया. इस संस्था को सरकार माओवादियों का फ़्रंट बताती थी.
    वरनॉन गोंज़ाल्विस
    मुंबई में रहने वाले वरनॉन गोंज़ाल्विस लेखक-कार्यकर्ता हैं. वो मुंबई विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडलिस्ट हैं और मुंबई के कई कॉलेजों में कॉमर्स पढ़ाते रहे हैं. उन्हें 2007 में अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट के तहत गिरफ़्तार किया गया था. वो छह साल तक जेल में रहे थे.
    गोंज़ाल्विस को नागपुर के ज़िला और सत्र न्यायालय ने यूएपीए की अलग-अलग धाराओं के तहत दोषी पाया था. वरनॉन की पत्नी सुज़न अब्राहम भी मानवाधिकार मामलों की एक वकील हैं. वरनन गोंज़ाल्विस के बेटे सागर अब्राहम गोंज़ांलविस ने बताया कि सब लैपटाप वगैरह के साथ बहुत सारे साहित्य साथ ले गये.

Sunday, August 26, 2018

加州森林大火引发的水资源管理思考

#MeToo运动近期相继在中国的学术界、公益界和媒体界爆发,用残酷的事实展示了工作场合性骚扰、性侵犯的普遍性。人们批判施暴者漠视道德准则和他人尊严,呼吁尽早建立预防和惩罚性骚扰的有效机制。

被曝光的性侵行为往往发生于掌握权力的男性和处于弱势的女性之间(如男记者与女实习生、男性机构负责人与女志愿者),凸显出职场乃至整个社会中存在着基于权力不平等的侵害行为,环保公益领域也不例外。因此,反对性骚扰只是一个开始。女性的诉求不应止步于获得保护,她们需要更主动地、更全面地参与到追求性别平等、重塑权力结构的进程中。

环境领域的性别不平等

性骚扰事件可谓是性别不平等的极端体现,其实职场中还存在许多看似更“温和”的问题。环境领域的工作者对这些现象一定不觉得陌生:大大小小的会议上,在台上侃侃而谈的多是男士,虽然研究相同议题的女性并不罕见(国际上,这被形象的称为manel,既all-male panel);环境新闻报道中更多引用的是男性专家的观点和意见;在很多环保机构中,尽管总体上女性员工更多,但管理层还是以男性为主。

这一类的问题不以暴力的形式出现,但却会系统性的限制女性职业发展、固化男性主导的权力结构。很多人觉得上述现象司空见惯,其实也是默许了性别不平等的事实。

环保组织的工作往往希望对外界产生影响。因而,内在的性别权力失衡会随着工作的开展产生外部影响。比如,政策制定本应吸收多方意见,如果参与讨论的总是固定的一群人且男性居多,最终推出的政策很可能无法有效反映女性的利益诉求,从而又进一步强化了男性主导的局面。而事实上,女性往往更易受环境污染和气候变化影响,她们的诉求本该成为政策和项目设计的重点。虽然女性也完全可以是男权、父权的维护者,但增加女性发声机会和女性领导者的数量仍不失为弥补两性权力差距的良方。

现在就可以开始改变

丑闻曝光之后,众多国内公益机构就公开做出了反性骚扰承诺,这样的快速回应也给人以希望。毕竟,比起受体制严格束缚的政届、商界和学术界,NGO行业更具备发生变革的基础和潜力。

提高女性话语权和影响力是一个复杂、缓慢的过程,但已经有人开始采取一些切实可行的行动。比如,让女性专家的观点和声音更多的出现在媒体报道中。例如,NüVoices团队就搜集整理了一份研究中国问题的女性专家名单,包含专家们的专业领域和联系方式。这份名单免费供其他记者使用,以鼓励同行将更多女性声音纳入报道。不过,这份名单上中国籍的女性专家仍是少数,可以做进一步的扩充。针对中文媒体工作者,类似的名单和倡议也值得推广。

再比如,在各类会议上为女性参与者提供更多的发言机会,杜绝“全男性论坛”(manel)现象。在环境领域工作的女性众多,只要能将性别平等作为组织会议的一项基本原则,这一点应该不难实现。在具体操作上,欧洲同仁的做法可资借鉴:旨在提高欧盟政策讨论中性别多样性的倡议 已经编写了一份指南,不管你是会议组织方还是参会嘉宾,你都可以在指南里了解到如何以自身的行动提高会议中的性别平等。

更大胆一些…

爱尔兰前总统 爱尔兰喜剧演员 ins于近期启动的一个新项目提出了比单纯的“平权”更具雄心的想法。这个名为“创造之母”( )的倡议计划通过播客的形式,讲述全球各地女性应对气候变化的行动。她们认为气候变化问题有其更深刻的根源:“父权资本主义制度将不会解决气候变化问题,而我们需要去。”

性别平等并不是要在现有体制下与男性“争权”,而是要彻底改变父权制的格局,建立一套女性主义的治理和行为模式。具体到环境议题上,就像 所说:“由人类活动引发的气候变化需要女性主义的解决方案”。这个思路也适用于中国所面对的众多环境挑战。

Friday, August 17, 2018

कितना मुश्किल हो सकता है स्टालिन के लिए आगे का सफ़र?

तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके नेता एम. करुणानिधि के शव को मरीना बीच पर दफ़नाए जाने के फ़ैसले के बाद राजाजी हॉल में खुशी की लहर छा गई थी.
अंतिम दर्शन के लिए करुणानिधि का शव राजाजी हॉल में रखा गया था और उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए बड़ी संख्या में लोग आए थे.
एम. करुणानिधि के बेटे और डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन हाथ बांधकर खड़े थे और बेहद भावुक नज़र आ रहे थे.
7 अगस्त को करुणानिधि की मृत्यु के बाद उनके शव को मरीना बीच पर दफ़नाए जाने की इजाज़त नहीं मिलने से डीएमके के सदस्यों और करुणानिधि को अपना नेता मानने वाले लोग उग्र होने लगे थे.
तब स्टालिन ने उनसे शांति बनाए रखने की अपील की थी और फ़ैसला आने से लेकर अंत्येष्टि तक धैर्य बनाए रखा.
पिता के आख़िरी सांस लेने के बाद स्टालिन ने उनके नाम ख़त भी लिखा.
अपने खत में उन्होंने लिखा, ''पूरी ज़िंदगी मैंने आपको पिता से ज़्यादा एक नेता के तौर पर संबोधित किया है. मेरे नेता, क्या अब मैं आपको अप्पा कह सकता हूं.''
इन सभी घटनाओं ने स्टालिन की छवि में सकारात्मक बदलाव ला दिया है. हालांकि, कई लोगों का ये भी कहना था कि ये सिर्फ़ शुरुआती दिन हैं.
स्टालिन के राजनीति में क़दम रखा ही था. साल 1975 में आपातकाल के दौरान उनकी गिरफ़्तारी और जेल में अत्याचार की ख़बरों ने पार्टी के बीच उनका सम्मान बढ़ा दिया था. इसके बाद स्टालिन बहुत तेज़ी से पार्टी में आगे बढ़ते गए.
पार्टी मुख्यालय में 14 अगस्त को डीएमके की कार्यकारी परिषद की बैठक हुई. वैसे तो ये कहा गया कि ये बैठक करुणानिधि की मृत्यु पर शोक मनाने के लिए रखी गई थी लेकिन पार्टी प्रमुख का पद खाली होने के चलते राजनीतिक कयास लगने लाज़मी थे.
क्या स्टालिन डीएमके के अध्यक्ष के तौर पर चुने जाएंगे? आने वाले दिनों में ये सवाल और ज्यादा उठने वाला है.
स्टालिन जनवरी साल 2017 में पार्टी के पहले कार्यकारी अध्यक्ष बने थे. लेकिन, अपने राजनीतिक सफर में उन्होंने कई मुश्किलों और रुकावटों का सामना किया है.
स्टालिन ने स्कूल के दिनों से ही अपना राजनीतिक सफर शुरू कर दिया था. उन्होंने चेन्नई के गोपालपुरम में पार्टी की यूथ विंग की शुरुआत की और राजनीति में अपनी रूचि दिखाई.
बाद में, साल 1970 की शुरुआत में उन्होंने युवाओं को प्रोत्साहित करना शुरू किया और पार्टी की बैठकों में भाग लेने लगे.
साल 1980 में करुणानिधि ने मदुरै में पार्टी की यूथ विंग की शुरुआत की. स्टालिन इसका संचालन करने लगे और बाद में उसके सचिव के तौर पर नियु​क्त किए गए. इस पद पर स्टालिन लंबे समय तक बने रहे.
हालांकि कुछ समय के लिए वो पार्टी के उप महासचिव भी रहे और साल 2008 में कोषाध्यक्ष के तौर पर भी काम किया.
उन्होंने 1984 में थाउजंड लाइट्स विधानसभा से पहला विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन एक वरिष्ठ एआईएडीएमके नेता से बहुत कम वोटों से हार ​गए.
बाद में वो साल 1989, 1996, 2001 और 2006 में इसी क्षेत्र से विधानसभा में पहुंचे. इस बीच 1991 में हुए चुनावों में वो हार गए थे.
साल 2011 और साल 2016 में वो कोलाथपुर इलाक़े से चुनाव जीत गए. फिलहाल वो राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता की भूमिका निभा रहे हैं.
डीएमके के 2006 में सत्ता में आने के बाद स्टालिन को स्थानीय प्रशासन मंत्री बनाया गया. पांच साल के कार्यकाल में उन्हें उनके प्रशासकीय कौशल के लिए काफी सराहा भी गया.
साल 1996-2000 के दौरान वो चेन्नई के मेयर रहे और तारीफ़ें बटोरीं. राज्य में बुनियादी ढांचे और सड़कों की हालत में सुधार के लिए उनका नाम हुआ.
लेकिन साल 2001 में स्टालिन, करुणानिधि और कुछ अन्य लोगों को चेन्नई में पुलों के निर्माण में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के आरोपों में गिरफ़्तार कर लिया गया था. बाद में सरकार ने उनके ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर नहीं की थी.
कुछ रिपोर्ट ये भी कहती हैं कि स्टालिन साल 2014 के आम चुनावों और 2016 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के प्रमुख रणनीतिकार भी रहे थे.
उन्होंने उम्मीदवारों के चयन और ​अन्य दलों से गठबंधन को लेकर फ़ैसले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
भाषण देने और लिखने के तरीक़े को लेकर स्टालिन की तुलना उनके पिता करुणानिधि से की जाती रही है.
वैसे तो हर नेता की अपनी-अपनी योग्यताएं होती हैं जैसे नेतृत्व क्षमता, वाक-पटुता और प्रबंधन कौशल. लेकिन, डीएमके को लेकर ये धारणा रही है कि उनके नेताओं की बेहतरीन भाषणकला और लेखन कौशल के चलते ही पार्टी सत्ता में आई है. इस धारणा के कारण भी स्टालिन आलोचनाओं का सामना करते रहे हैं.
साल 2015 में स्टालिन ने राज्य भर में यात्रा करने के लिए एक अभियान की शुरुआत की और उसे नाम दिया 'नमाक्कु नामे'. इस अभियान का मकसद सभी वर्गों के लोगों से मिलना-जुलना था.
इस यात्रा से जहां उन्हें सराहना मिली, वहीं आलोचनाएं भी झेलनी पड़ीं.
इस अभियान के दौरान स्टालिन के चाय की दुकानों पर लोगों से बातचीत करने, पार्टी समर्थकों के साथ बाइक चलाने और उनकी अन्य गतिविधियों को विरोधियों और आलोचकों ने स्टंट बताया था.

Tuesday, August 14, 2018

ब्लॉग: उमर ख़ालिद की सुरक्षा गृह मंत्री राजनाथ सिंह की ज़िम्मेदारी

भारतीय संसद से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर एक आदमी भरी दुपहरी हत्या करने के मक़सद से गोली चलाता है और तमंचा सड़क पर छोड़कर फ़रार होने में कामयाब हो जाता है.
ये सब उस वक़्त होता है जब स्वतंत्रता दिवस के कारण देश की राजधानी में चप्पे-चप्पे पर कड़ी सुरक्षा का इंतज़ाम किया गया है.
दिल्ली मेट्रो के डिब्बों में और प्लेटफ़ॉर्म पर काले पट्टे बाँधे, हाथ में मॉडर्न राइफ़लें लिए पैरा मिलिटरी कमांडो जगह-जगह आम लोगों की तलाशी लेते नज़र आते हैं.
हमलावर के निशाने पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का वो छात्र है, जिसे पिछले तीन साल से देशद्रोही साबित करने की कोशिशें हो रही हैं. उन पर और उनके दूसरे साथियों पर कैम्पस में देशविरोधी नारे लगाने के आरोप लगे, लेकिन राजद्रोह के मुक़दमे में ढाई साल बीतने पर भी पुलिस चार्जशीट तक दाख़िल नहीं कर पाई है.
तमाम सतर्क कमांडो, पुलिस के सिपाही और अफ़सर, जगह-जगह पर सादे कपड़ों में तैनात ख़ुफ़िया पुलिस के लोग उमर ख़ालिद पर गोली चलाने वाले उस अनजान शख़्स को संसद के पास भरी हुई पिस्तौल लाने से नहीं रोक पाए.
चश्मदीदों के मुताबिक़ उमर ख़ालिद को निशाने पर लेकर गोली चलाने वाला वो शख़्स निकल भागने में कामयाब हो गया और अब तक पुलिस उस हमलावर का कोई अता-पता नहीं लगा पाई है.
दो महीने पहले उमर ख़ालिद ने दिल्ली पुलिस को अर्ज़ी दी थी कि उन्हें सुरक्षा दी जाए क्योंकि उनकी जान को ख़तरा है. उमर की वो अर्ज़ी अभी सरकारी फ़ाइलों में ही दबी हुई है. उनकी हिफ़ाज़त की सीधी ज़िम्मेदारी दिल्ली पुलिस और इस वजह से केंद्रीय गृह मंत्रालय की है, क्योंकि दिल्ली में क़ानून-व्यवस्था के लिए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ज़िम्मेदार हैं अरविंद केजरीवाल की सरकार नहीं.
बीबीसी हिंदी से एक बातचीत में उमर ख़ालिद ने कहा, "क्या मुझे सुरक्षा तब मिलेगी जब मेरी जान ले ली जाएगी."
सेंट्रल दिल्ली में बसने वाले वीआइपियों की सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस जितनी ज़िम्मेदार है उतनी ही ज़िम्मेदार वो दिल्ली के आम बाशिंदों की सुरक्षा के लिए भी है - वो आम बाशिंदे चाहे काँग्रेसी हों या कम्युनिस्ट, समाजवादी हों या संघी, हिंदू हों या मुसलमान, राजनीतिक हों या राजनीति से दूर रहने वाले.
या फिर वो उमर ख़ालिद या कन्हैया कुमार ही क्यों न हों, जिन्हें सत्ता में बैठे लोग, उनके समर्थक, सोशल मीडिया ट्रोल्स की फ़ौज पिछले तीन साल से देशद्रोही साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाए हुए है.
यह अकल्पनीय नहीं है कि सोमवार, 13 अगस्त की दोपहर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब के बाहर सड़क पर उमर ख़ालिद की लाश भी गिर सकती थी. ठीक उसी तरह जैसे बंगलौर में पत्रकार गौरी लंकेश की लाश गिरी. जैसे धारवाड़ में कन्नड़ ले
वो जेएनयू में हथियार पहुँचाने का एलान करते हैं, पुलिस के साथ लुकाछिपी का खेल खेलते हैं और फिर गिरफ़्तारी की औपचारिकता के बाद वापस कट्टर हिंदुत्व के एजेंडे पर लौट आते हैं.
आधुनिक लोकतंत्र इसी मायने में अन्याय पर आधारित मध्ययुगीन क्रूर व्यवस्थाओं से अलग है कि इसमें सज़ायाफ़्ता अपराधियों को भी अधिकार दिए गए हैं. उनके भी मानवाधिकार तय होते हैं. उनके साथ इनसान और नागरिक की तरह व्यवहार किया जाता है. उमर ख़ालिद और कन्हैया कुमार को किसी अदालत ने सज़ा नहीं दी है, न कोई आरोप साबित हुआ है, मगर उन्हें बार-बार राष्ट्र के अपराधी के तौर पर पेश किया जाता है.
सत्तारूढ़ पार्टी की राजनीति से असहमत इन नौजवानों के अधिकारों की रक्षा करना इस देश की चुनी हुई सरकार, उसके गृह मंत्री और उनकी पुलिस की नैतिक और क़ानूनी ज़िम्मेदारी है. पर उमर ख़ालिद पर हुए हमले की आलोचना में सरकार या उसके किसी नुमाइंदे की आवाज़ कहीं आपको सुनाई दी? लीविज़न, सोशल मीडिया और प्रेस कॉन्फ़्रेंस के ज़रिए हमेशा हमारे और आपके अवचेतन में घुसपैठ करने वाले पार्टी प्रवक्ता इस हमले पर ऐसे ख़ामोश हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो. या फिर जैसे उमर ख़ालिद ने ख़ुद ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की हों कि उन पर हमला होना लाजिमी हो गया हो, और अगर उन्हें कुछ हो भी जाता है तो जनमत सरकार के विरुद्ध नहीं जाने वाली इसलिए क्यों चिंता की जाए.
सरकार और पुलिस को पसंद आए या न आए पर उमर ख़ालिद और कन्हैया कुमार ही नहीं, एसएआर गिलानी जैसे लोगों की हिफ़ाज़त करना भी उसी की ज़िम्मेदारी है जिन पर भारतीय संसद पर हमला करने के षडयंत्र में शामिल होने का आरोप लगा था, मगर हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में उन्हें इस मामले से बरी कर दिया.
तो क्या एसएआर गिलानी के सभी नागरिक अधिकार हमेशा के लिए ख़त्म माने जाएँ?
गिलानी दिल्ली के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में अरबी भाषा के प्रोफ़ेसर थे और 2001 में संसद पर हुए आत्मघाती हमले के बाद उन्हें गिरफ़्तार किया गया था. हाईकोर्ट से बरी किए जाने के बाद गिलानी को क्या वो शारीरिक और मानसिक सुरक्षा मिल पाई जो किसी भी नागरिक का संवैधानिक अधिकार है? बिल्कुल नहीं, बल्कि उनकी हत्या की कोशिश की गई.
हाईकोर्ट से रिहा किए जाने के कुछ समय बाद 2005 की एक शाम दिल्ली के वसंत कुंज इलाक़े में अज्ञात बंदूक़धारियों ने एक के बाद एक करके पाँच गोलियाँ गिलानी पर दाग़ीं. ज़ाहिर है, अदालत से छूट गए इस आदमी को कुछ लोग जीवित नहीं देखना चाहते थे.
गिलानी अपनी वकील नंदिता हक्सर से मिलने उनके घर गए थे कि उन पर हमला हो गया और आज तक ये पता नहीं चल पाया है कि गिलानी पर हमला किसने किया और उन्हें मारने से किसे फ़ायदा हो सकता था.
एसएआर गिलानी ने बताया, "इतने बरसों में सिर्फ़ एक बार मुझे साकेत कोर्ट में बुलाया गया. इसके बाद न पुलिस ने कुछ पूछताछ की और न मुझे कुछ बताया गया. हालाँकि, मेरे ज़ोर डालने पर ही नामालूम हमलावरों के ख़िलाफ़ एफ़आइआर दर्ज की गई थी."
गिलानी के हमलावरों का पता लगाने की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की है और क़ानून, संविधान और नैतिकता की नज़र से देखें तो इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उन पर संसद पर हमले की साज़िश में शामिल होने का आरोप था, लेकिन तथ्य ये है कि अदालत ने उन्हें बेकसूर मानकर रिहा किया. सवाल ये है कि अदालत का फ़ैसला अंतिम और मान्य है या नहीं?
इसी तरह उमर ख़ालिद के हमलावर की शिनाख़्त करके उसे पकड़ने और सज़ा दिलवाने की ज़िम्मेदारी भी दिल्ली पुलिस की है. एसएआर गिलानी की जान लेने की कोशिश की ही तरह क्या इस मामले में भी कोई नहीं पकड़ा जाएगा? अगर ऐसा होता है तो इसे देश के गृह मंत्री की नाकामियों की फ़ेहरिस्त में ही गिना जाएगा.
खक एमएम कलबुर्गी की लाश गिरी. जैसे कोल्हापुर में वामपंथी विचारक गोविंद पानसरे की लाश गिरी.
बिना अदालती फ़ैसले या किसी ठोस सबूत के कन्हैया कुमार और उमर ख़ालिद जैसे लोगों को देशद्रोही साबित करने की एक मुहिम लगातार जारी है. इसी प्रचार का नतीजा है कि नवनिर्माण सेना नाम के उग्र हिंदुत्ववादी संगठन के अमित जानी जैसे लोग सोशल मीडिया के ज़रिए कन्हैया कुमार और उमर ख़ालिद की गरदन काटने की धमकी देने में हिचकते नहीं.

Friday, August 10, 2018

निक ने कन्फर्म की प्रियंका से सगाई, कहा अब अपना परिवार चाहता हूं

बॉलीवुड एक्ट्रेस प्रियंका चोपड़ा, निक जोनस के साथ रिलेशन को लेकर काफी सुर्खियों में हैं। हालांकि जब प्रियंका से इस बारे में पूछा जाता है तो वो हमेशा इन सवालों को इग्नोर करती हैं। हाल ही में प्रियंका ने ये तक कह दिया था कि उन्हें अपनी पर्सनल लाइफ को लेकर बात करना पसंद नहीं है। लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक हाल ही में जब एक पत्रकार ने निक को प्रियंका से उनकी सगाई के लिए शुभकामनाएं दी तो निक ने इसके जवाब में शुक्रिया कहा।
निक के इस थैंक्स के बाद दोनों की सगाई की खबरों को कहीं न कहीं सच माना जा रहा है। बता दें कि इसके साथ ही निक ने रिपोर्टर्स से बातचीत में कहा कि वह अब जल्द ही अपना परिवार बनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा, 'अपना खुद का परिवार बनाना मेरा लक्ष्य है, ये एक ऐसी चीज है जो मैं चाहता हूं कि अब हो।'
जब प्रियंका ने छिपाई रिंग
बता दें कि हाल ही में प्रियंका को दिल्ली एयरपोर्ट पर स्पॉट किया गया। इस दौरान फोटोग्राफर्स को देख प्रियंका ने अपनी एंगेजमेंट रिंग उतार कर पॉकेट में रख ली। लेकिन उनके रिंग उतारने का स्टाइल कुछ ऐसा था कि किसी को एकदम से समझ ही नहीं आया। लेकिन अगर आप वीडियो को ध्यान से देखेंगे, तो हीमीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 'प्रियंका और निक जल्द ही एक वीडियो में एक साथ दिखाई दे सकते हैं। इतना ही नहीं निक के अलावा प्रियंका भी इसमें अपनी आवाज दे सकती हैं।' अब अगर ऐसा होता है तो ये दोनों के फैन्स के लिए किसी गिफ्ट से कम नहीं होगा क्योंकि दोनों को लेकर फैन्स में काफी एक्साइटमेंट रहता है।
सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को बिहार के नियोजित शिक्षकों को समान काम के लिये समान वेतन के मामले की सुनवाई होगी। शीर्ष अदालत में होने वाली सुनवाई को अंतिम सुनवाई माना जा रहा है, साथ ही इस मामले में फैसला आने की भी उम्मीद जताई जा रही है। इससे पहले समान काम के लिये समान वेतन के मामले में सुप्रीम कोर्ट में कई सुनवाई हो चुकी है।
इस मामले में केंद्र सरकार एफिडेविट दाखिल कर चुकी है। बिहार सरकार की दलील को केंद्र सरकार ने सही ठहराया है। पिछली सुनवाई के दौरान कोर्ट में बिहार सरकार ने कहा था कि नियोजित शिक्षकों के परीक्षा में पास होने से ही सैलरी इन्क्रिमेंट होगा और ये बढ़ोत्तरी बीस फीसदी की होगी, लेकिन कोर्ट ने कहा कि 20 फीसदी बढ़ाने से भी शिक्षकों की सैलरी चपरासी जितनी नहीं हो पायेगी।
कोर्ट ने सरकार से कहा कि एक ऐसी स्कीम लाएं जिससे बिहार ही नहीं, बल्कि समान काम के लिये समान वेतन मांगने वाले अन्य प्रदेश के शिक्षकों का भी भला हो सके। कोर्ट ने कहा कि इसके लिए केन्द्र सरकार और बिहार सरकार बैठकर बात करें।
सुप्रीम कोर्ट ने अटार्नी जनरल की दलील पर चार सप्ताह का समय दिया था और कहा कि केन्द्र सरकार चार सप्ताह के भीतर कम्प्रिहैंसिव स्किम बनाये और कोर्ट में हलफनामा दाखिल करे।