Sunday, May 26, 2019

मोदी राज में विपक्ष के अस्तित्व का संकट, सरकार पर कौन लगाएगा अंकुश?

लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले एनडीए गठबंधन को बड़ी जीत हासिल हुई है. भाजपा ने अकेले तीन सौ के आंकड़ों को पार किया और 303 सीटों पर जीत का परचम लहराने में सफल रही.
अन्य सहयोगी पार्टियों के साथ ने इस जीत को और प्रचंड बना दिया. एनडीए ने लोकसभा की कुल 353 सीटों पर कब्जा किया, वहीं कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए 92 सीटों पर सिमट कर रह गया.
कांग्रेस के अकेले प्रदर्शन की बात करें तो काफी खींच-तान के बाद पार्टी को महज 52 सीटों पर सफलता मिली.
भाजपा की इस बड़ी जीत के बाद भारतीय राजनीति में विपक्ष के सामने एक बार फिर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है.
सत्रहवीं लोकसभा में सरकार के सामने आधिकारिक रूप से विपक्ष का नेता नहीं होगा. पिछली सरकार में भी ऐसी ही स्थिति थी.
सदन में सरकार के सामने कई विपक्षी पार्टियां होती हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर उस पार्टी को विपक्ष का नेता बनाने का मौका मिलता है जिसके पास कम से कम 10 फीसदी सीटें हासिल हों.
यानी 543 सीटों वाले लोकसभा में विपक्ष का नेता उस पार्टी का होगा, जिसके पास कम से कम 55 सीट होंगी.
इस बार कांग्रेस इस आंकड़े को छू पाने में सफल नहीं रही है. पार्टी के पास 52 सांसद हैं और विपक्षी नेता का तमग़ा हासिल करने से वो तीन पायदान नीचे रह गई.
2014 के चुनावों की बात करें तो कांग्रेस महज 44 सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी और उस बार भी सदन को विपक्ष का नेता नहीं मिल पाया था.
मोदी राज में न सिर्फ विपक्षी पार्टियों बल्कि विपक्ष के नेता के अस्तित्व पर संकट गहरा गया है. अब सवाल उठता है कि ऐसे में भारतीय लोकतंत्र किस ओर जाएगा?
इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि हमारी संसदीय राजनीति में विपक्ष के नेता की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका संविधान के अनुसार लोकतंत्र को चलाने के लिए होती है.
नवीन जोशी कहते हैं, "संवैधानिक संस्थानों जैसे सीबीआई का निदेशक या सूचना आयुक्त की नियुक्ति या फिर सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में प्रतिपक्ष के नेता की बड़ी भूमिका होती है."
"विपक्ष के नेता का ओहदा प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस के स्तर का समझा जाता है. पिछली बार भी कांग्रेस इतनी सीटें नहीं ला पाई थी कि तकनीक तौर पर विपक्ष के नेता का दर्जा हासिल कर पाती, इस बार भी वो यह दर्जा पाने में नाकाम रही है."
"ऐसे में फर्क तो पड़ता है. जो आवाज़ एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की हो सकती है, वो कृपा या सरकार की उदारता के कारण मिले दर्जे की नहीं हो सकती है."
एक स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए एक मज़बूत सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष का होना ज़रूरी समझा जाता है. विपक्ष सरकार के कार्यों और नीतियों पर सवाल उठाता है और उसे निरंकुश होने से रोकता है.
संसद में अगर विपक्ष कमज़ोर होता है तो मनमाने तरीके से सत्ता पक्ष कानून बना सकता है और सदन में किसी मुद्दे पर अच्छी बहस मज़बूत विपक्ष के बिना संभव नहीं है.
भारतीय लोकतंत्र इस बात का गवाह रहा है कि जब भी कर्पूरी ठाकुर, अटल बिहारी वाजपेयी, भैरो सिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता संसद में बोलते थे, सत्ता पक्ष उनकी बातों को संजीदगी से सुनता था.
न सिर्फ सुनना, नीतियों और योजनाओं को विपक्ष की बहस से धार दिया जाता था और उसे जनोत्थान के लिए बेहतर समझा जाता है.
एनडीए सरकार भी मज़बूत विपक्ष के महत्व को समझती है. भाजपा के वरिष्ठ नेता तरुण विजय क्षेत्रीय अख़बार प्रभात ख़बर
पहले के मुकाबले अब नेता प्रतिपक्ष की ज़रूरत संसद को कितनी है, इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा का जो दौर था वो नेहरू का दौर था, उस वक़्त लोकतंत्र की नींव रखी जा रही थी, संविधान निर्माताओं ने जो स्वरूप बनाया था, उसका सख़्ती से पालन किया जा रहा था.
नवीन जोशी बताते हैं कि विपक्ष के नेता के प्रति नेहरू के मन में बड़ा आदर था और वो आलोचनाओं को आमंत्रित करते थे. कई बार संसदीय भाषण में उन्होंने खुद कहा था कि मेरी आलोचना मेरे सामने करने में कोई संकोच नहीं किया जाए.
वे कहते हैं, "उस दौर में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका उतनी खली नहीं होगी. लेकिन आज के दौर में थोड़ी आशंकाएं होती हैं. पिछली भाजपा सरकार के दौरान कई ऐसे मौके आए जब संवैधानिक संस्थानों से छेड़छाड़ करने के आरोप लगे."
में प्रकाशित एक लेख में लिखते हैं, "विपक्ष धारदार, असरदार और ईमानदार हो तो सरकार उसके डर से कांपती है, देश का भला होता है, सरकारी नेताओं का अंहकार, उनकी निरंकुश और मनमानी नियंत्रित रहती है."
सोलहवीं और सत्रहवीं लोकसभा के दौरान विपक्ष के नेता का न होने का यह पहला या दूसरा मामला नहीं है. इससे पहले, पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा के दौरान भी ऐसी ही स्थिति बनी थी.
इस दौरान कांग्रेस को सदन में 360 से 370 सीटें मिली थीं. उसके मुकाबले पहली तीन लोकसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सदन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. सीपीआई को इस दौरान 16 से 30 सीटें ही मिली थीं.
1952 में देश में पहली बार हुए आम चुनावों के 17 साल बाद सदन को विपक्ष का नेता मिला. चौथे लोकसभा के दौरान साल 1969 में राम सुभाग सिंह पहले विपक्ष के नेता बने.
उस लोकसभा के दौरान कांग्रेस पार्टी में बंटवारे के बाद यह स्थिति उत्पन्न हुई थी और कांग्रेस के राम सुभाग सिंह को लोकसभा अध्यक्ष ने विपक्ष के नेता की मान्यता दी.
वो 1970 तक इस पद पर बने रहे. इसके बाद कांग्रेस की जोड़-तोड़ में कई बार कांग्रेस के नेता विपक्ष के नेता के तौर पर चुने गए. 1979 में जनता पार्टी के जगजीवन राम पहले ऐसे गैर कांग्रेस नेता थे जिन्हें विपक्ष के नेता का दर्जा मिला.
पांचवे और सातवें लोकसभा के दौरान भी मुख्य विपक्षी दल के पास संख्या बल इतना नहीं था कि उनके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा दिया जा सके.

Friday, May 3, 2019

تدوينة "ساخرة" أودت بحياة أمي

في كل مرة ولشهور عدة، كنتُ أقابل الشخص الذي يُشرف على التحقيق في عملية اغتيال والدتي. وكانت أسرتي قد قابلته للمرة الأولى منذ ست سنوات عندما جاء إلى منزلنا لإلقاء القبض عليها.
كانت والدتي قد نشرت مدونة تسخر فيها من مرشح لرئاسة الوزارة في يوم الانتخابات، فقدم أحد مؤيديه شكوى ضدها لدى الشرطة.
وهكذا أُرسل المحقق إلى منزلنا منتصف الليل وهو يحمل مذكرة إلقاء قبض بحقها، بتهمة سماها "التعبير غير القانوني عن الرأي".
كنتُ وقتها أعمل في الطرف الآخر من العالم، وكان معارف يرسلون لي أشرطة تظهرها وقد أُطلق سراحها من مركز للشرطة في الواحدة والنصف بعد منتصف الليل وهي ترتدي قميص والدي.
ولكن، وبعد ساعات قلائل، كانت والدتي تعاود الكتابة عبر الانترنت واصفة ما تعرضت له من انتهاكات وتسخر من مخاوف رئيس الحكومة الجديد ومن مظهرها هي.
وكتبت "أعتذر لمظهري غير المرتب، ولكن عندما تدهم فرقة مكافحة الجريمة منزلك لاعتقالك في الليل، لن تفكر في تمشيط شعرك أو وضع مسحوق تجميل".
والآن، كلف المحقق نفسه الذي اعتقل أمي تلك الليلة بالتحقيق في مقتلها.
في اليوم الذي اغتيلت فيه، كانت أمي، دافني كاروانا غاليزيا، قد ذهبت إلى البنك لاستعادة حسابها الذي كان قد جمد بطلب من أحد وزراء الحكومة.
كانت قد بلغت الـ 53 من عمرها وكانت في قمة نشاطها الصحفي الذي امتد لثلاثين عاما.
ولكنها قُتلت في تلك الرحلة، إذ فجرت عن بعد عبوة ناسفة وزنها نصف كيلوغرام زُرعت تحت مقعد سيارتها.
احتفل مؤيدو الحكومة بعملية الاغتيال علنا، وهو أمر ذكرني بأولئك الذين فرحوا باغتيال الصحفي التركي الأرمني هرانت دينك.
وألمح آخرون إلى أني قد دبرت العملية، أو أن أمي خاطرت برضا بحياتها، وهو الاتهام نفسه الذي وجه الى الصحفي الأمريكي،جيمس فولي، الذي خطف وقتل في سوريا.