Wednesday, September 26, 2018

भाजपा विधायक संगीत सोम के घर फायरिंग, हमलावरों ने ग्रेनेड भी फेंका

मेरठउत्तरप्रदेश के सरधना से भाजपा विधायक संगीत सोम के घर पर अज्ञात हमलावरों ने कई राउंड फायरिंग की और ग्रेनेड फेंका। घटना बुधवार रात करीब एक बजे हुई। तब सोम परिवार के साथ घर में मौजूद थे। हमलावर कार में सवार थे। इस घटना के बाद विधायक की सुरक्षा बढ़ाई गई है।

हैंड ग्रेनेड नहीं फटा, खाली कारतूस मिले

  1. मेरठ के एसएसपी देर रात घटना स्थल पर पहुंचे। उन्होंने बताया कि खाली कारतूस और गोलियों के निशान की फॉरेंसिक जांच कराई जा रही है। एक हैंड ग्रेनेड मिला है, जो फटा नहीं था। गार्ड के केबिन और मेनगेट को निशाना बनाकर गोलियां चलाई गई हैं।
  2. संगीत सोम ने कहा, ''मुझे किसी से धमकी नहीं मिली। लेकिन दो साल पहले किसी ने फोन पर कहा था कि तुम पर ग्रेनेड से हमला किया जाएगा।'' विधायक सोम अपने बयानों से विवादों में रहे हैं। उन्हें जेड श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई है।ई दिल्ली. सरकार ने बुधवार को 19 आइटम्स पर कस्टम ड्यूटी बढ़ाने का ऐलान किया। इसके चलते रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर और वॉशिंग मशीन महंगी होंगी। सरकार ने यह फैसला चालू खाता घाटा (सीएडी) कम करने और गैर-जरूरी चीजों का आयात घटाने के लिए किया है। एविएशन टर्बाइन फ्यूल (एटीएफ) पर पहली बार कस्टम ड्यूटी लगाई गई है। ऐसे में हवाई सफर भी महंगा हो सकता है।         

    राजस्व विभाग के नोटिफिकेशन के मुताबिक, बुधवार आधी रात से ही यह फैसला लागू हो गया। जिन 19 आइटम्स पर कस्टम ड्यूटी घटाई गई है, 2017-18 में उनका 86 हजार करोड़ रुपए का आयात हुआ था।

    मोदी ने दिए थे चालू खाता घाटा कम करने के निर्देश
    रुपए की गिरती कीमत और तेजी से बाहर जाते विदेशी करंसी के मद्देनजर पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उच्चस्तरीय बैठक बुलाई थी। इसमें मोदी ने चालू खाता घाटा कम करने के लिए गैर-जरूरी चीजों को आयात कम करने को कहा था। एयर कंडीशनर, घरेलू रेफ्रिजरेटर और वॉशिंग मशीन का आयात शुल्क 10 से 20% किया जा चुका है।टना. बिहार में कांग्रेस नेताओं का एक होर्डिंग चर्चा में है। इसमें राहुल गांधी और प्रदेश की नवनियुक्त कार्यसमिति के सदस्यों की तस्वीरें हैं। हर तस्वीर पर संबंधित नेता की जाति लिखी हुई है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश सचिव ने यह होर्डिंग लगवाया है। उनकी दलील है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को मुस्लिमों की पार्टी कहा है, उसका यह जवाब है।

    पटना में लगाए गए होर्डिंग

  3. पटना में सदाकत आश्रम, राजापुर पुल, तारामंडल और बोरिंग केनाल रोड समेत कई जगहों पर यह होर्डिंग लगाए गए हैं। प्रदेश कांग्रेस के पूर्व प्रदेश सचिव सिद्धार्थ क्षत्रिय ने इन्हें लगवाया है।
  4. उनका कहना है कि मोदी कह रहे हैं कि कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है। ऐसे में हम उन्हें और जनता को बताना चाहते हैं कि ऐसा कतई नहीं है।नई प्रदेश कमेटी में सभी जाति को स्थान मिला है।
  5. होर्डिंग में राहुल गांधी की तस्वीर पर ब्राह्मण लिखा गया है। अखिलेश सिंह और श्याम सुंदर सिंह धीरज भूमिहार हैं। बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल, वीरेंद्र सिंह राठौर और समीर सिंह राजपूत हैं। अल्पेश ठाकुर और सदानंद सिंह पिछड़ा वर्ग से हैं।
  6. हाल ही में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष के साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष और अभियान समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई है। एक साल से प्रभारी अध्यक्ष के भरोसे प्रदेश कांग्रेस चल रही थी। इसी के साथ बड़ी कमेटी भी बनाई गई है।

Monday, September 10, 2018

राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बीच वरुण गाँधी और शत्रुघ्न सिन्हा कहां थे?

के आम चुनावों के पहले होने वाली भारतीय जनता पार्टी की आखिरी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दिल्ली में ख़त्म हुई.
मौजूदा अध्यक्ष अमित शाह को चुनाव तक सेनापति बने रहने का दायित्व मिला और समापन के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "एक नए भारत का संकल्प लिया.''
इस अहम बैठक में ऐसे कई लोग भी पहुंचे जो पार्टी में पिछले चार सालों से ख़ासे 'निष्क्रय' दिखाई दिए हैं.
लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की तस्वीर 2018 की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक साथ ही दिखी.
2013 में पणजी, गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी 'अस्वस्थ' होने के चलते नहीं गए थे.
मुरली मनोहर जोशी उस बैठक के लिए गोवा गए थे और उन्होंने भाजपा की लीडरशिप को बदलते देखा था.
ये वही बैठक थी जिसमें नरेंद्र मोदी को 2014 के आम चुनावों के लिए चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनाया गया.
इसके बाद से जो हुआ वो ज़्यादा पुराना इतिहास नहीं है. नरेंद्र मोदी ने धुआंधार तरीके से चुनाव जीता और पीएम बने.
उनके पुराने और 'विश्वासपात्र' गृह मंत्री रहे अमित शाह को भाजपा की कमान सौंपी गई और बिहार-दिल्ली छोड़ भाजपा ने देश में तमाम विधानसभा चुनाव जीते.
लेकिन इस प्रक्रिया में तीन लोग ऐसे भी थे जो पार्टी से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से दूर जा रहे थे.
पटना साहिब से सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और सुल्तानपुर के सांसद और संजय गाँधी के बेटे वरुण गाँधी.
लंबे समय तक मोदी सरकार की वित्तीय और विदेश नीति को ग़लत ठहराने के बाद मौजूदा केंद्रीय राज्य मंत्री जयंत सिन्हा के पिता यशवंत सिन्हा ने इसी वर्ष भाजपा त्याग दी.
लेकिन दो ऐसे लोग हैं जिनके बारे में भारतीय जनता पार्टी आज भी असमंजस में है.

वरुण गांधी और शत्रुघ्न सिन्हा क्यों नहीं नज़र आए
वरुण गाँधी और शत्रुघ्न सिन्हा वे दो सांसद हैं जिनका पार्टी में भविष्य किसी को नहीं पता.
राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान भाजपा के एक केंद्रीय नेता ने कहा, "आज भाजपा जितनी सफल और बड़े पैमाने पर फैली हुई है उसमें बेवजह विरोध करने वालों के लिए जगह कहाँ है?"
लेकिन जिस शाम अमित शाह राष्ट्रीय कार्यकारिणी में "बूथ जीतो, चुनाव जीतो" वाला मंत्र दोहरा रहे थे, उस समय शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बगल में बैठे हुए आम आदमी पार्टी की एक रैली में शिरकत कर रहे थे.
इसके एक शाम पहले भाजपा सरकार की केंद्रीय मंत्री मेनका गाँधी के पुत्र और सांसद वरुण गाँधी अम्बाला की एक यूनिवर्सिटी में छात्रों को युवा शक्ति पर भाषण दे रहे थे.
भाजपा को लंबे समय से कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार शेखर अय्यर के मुताबिक़, "पार्टी इन्हें हीरो बनाने के मूड में बिल्कुल नहीं है".
उन्होंने कहा, "यशवंत सिन्हा तो ख़ुद अलग हो गए. शत्रुघ्न सिन्हा कभी आप तो कभी आरजेडी वगैरह के साथ दिखते हैं और सरकार के ख़िलाफ़ कुछ बोल जाते हैं. वरुण खुल कर तो कुछ नहीं बोलते, लेकिन थोड़ा अलग-थलग ज़रूर दिखते हैं. असल बात ये है कि भाजपा दोनों में से किसी के ख़िलाफ़ एक्शन लेकर उन्हें हीरो नहीं बनाना चाहती."

शेखर अय्यर को लगता है पार्टी का रवैया अगले आम चुनाव में "टिकट देते समय सबको साफ़ तौर पर दिख जाएगा".
बात शत्रुघ्न सिन्हा की हो तो वे एक लंबे समय से प्रधानमंत्री मोदी और उनकी कैबिनेट के ख़िलाफ़ 'मसखरी भरे' लेकिन चुभने वाले ट्वीट करते रहे हैं.
मिसाल के तौर पर संसद सत्र के दौरान मोदी की विदेश यात्रा पर उन्होंने ट्वीट किया था, "आसमान फट नहीं जाता अगर पीएम संसद सत्र पूरा होने के बाद अफ़्रीका जाते."
कर्नाटक विधान सभा चुनाव के दौरान उन्होंने कहा था कि, "प्रधानमंत्री बनने से कोई देश का सबसे ज्ञानी नहीं बन जाता."
ऐसे दर्जनों उदाहरण मिल जाएंगे जिनका निष्कर्ष यही निकलता है कि मौजूदा भाजपा में न तो शत्रुघ्न सिन्हा के लिए कोई ख़़ास जगह है और न ही शत्रुघ्न सिन्हा के दिल में मौजूदा भाजपा नेतृत्व के प्रति.
रविवार को ही भाजपा के केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने सिन्हा को '​सभी का मंच शेयर कर लेने वाला​' बताया.
हालाँकि शत्रुघ्न सिन्हा से ही मिलता-जुलता एक उदाहरण पूर्व भाजपा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू भी हैं, लेकिन वे पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं और फ़िलहाल पंजाब कैबिनेट में मंत्री हैं.
लौटते हैं वरुण गाँधी पर जिन्होंने नरेंद्र मोदी या अमित शाह की कभी भी खुलकर आलोचना नहीं की है.

लेकिन वरुण गाँधी के रवैये से हमेशा यही लगा है कि वे अपनी ही पार्टी की सरकार से नाख़ुश हैं.
वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामशेषन के मुताबिक़, "भाजपा में वरुण की जगह उस दिन से सिमटनी शुरू हो गई थी जिस दिन से पार्टी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के पूरे प्रभाव में आई."
उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने हाल ही में बताया था कि, @कुछ दिन पहले लखनऊ में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में वरुण ने किसी शीर्ष नेता का नाम लिए बिना सरकारी नीतियों की धाज्जियाँ उड़ा दी थीं.'
दरअसल वरुण ने अपने परदादा जवाहरलाल नेहरू की तारीफ़ करने के अलावा देश में किसानों का ख़स्ताहाल और एक बड़े उद्योगपति का बैंक कर्ज़ा चुकाए बिना देश से निकल जाने की निंदा की थी.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी. वैसे भी 2017 की भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी इलाहाबाद में हुई थी और पार्टी के कुछ नेताओं ने मुझसे 'वरुण के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल" होने की बात कही थी.
इलाहाबाद हवाई अड्डे से लेकर बैठक के स्थान तक रातोंरात वरुण गाँधी की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के पोस्टर भी लगे मिले थे.
जब चुनाव आए तो वरुण को "प्रचार तक के लिए नहीं कहा गया".

बहरहाल, रविवार को वरुण गाँधी से बात नहीं हो सकी क्योंकि अम्बाला से लौटने के बाद उनकी 'तबीयत थोड़ी ढीली" है और सोमवार को उन्हें एक और एक और सम्बोधन देने भोपाल निकलना है.
सवाल बड़ा लगता है कि आखिर वरुण और शत्रुघ्न भाजपा की इस अहम बैठक में क्यों नहीं गए.
शत्रुघ्न सिन्हा ने तो अरविन्द केजरीवाल के साथ मंच पर बैठ कर अपना जवाब फिर से देने की कोशिश की है.
वरुण शायद अगले आम चुनावों तक अपने पत्ते न खोलने का मन बनाकर बैठे हैं.

Wednesday, September 5, 2018

नजरिया: 'कट्टर राष्ट्रवाद की धुन में मोदी पूजा में लगा मीडिया'

रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में मीडिया का कोई भी मूल्यांकन ये मान कर शुरू होता है कि मोदी को मीडिया ने बनाया है. नरेंद्र मोदी को अकेले आरएसएस नहीं बना सकता था.
मीडिया ही था, जिसने सपने दिखाए और कहानियाँ सुनाईं. अमरीकी कॉमिक्स के प्रमुख किरदार रोशैख़ (जो अपराध से लड़ता है और दोषियों को हर हाल में सज़ा देता है) की तरह, जिससे लोगों को लगने लगा कि कांग्रेस में अब कुछ नहीं बचा है और उसका विकल्प केवल मोदी ही हैं.
इसने एक ऐसे व्यक्ति की रूपरेखा तैयार की, जो सक्रिय, साहसी, निर्णायक, सक्षम और कठोर था. वो एक 'इंप्रेशनिस्ट पेंटर' की तरह धीरे-धीरे उनकी एक जीवंत तस्वीर बनाते गए.
मोदी दो दशकों पहले पूरी तरह एक अफ़वाह थे, धीरे-धीरे चर्चाओं का हिस्सा बन गए और फिर मीडिया की रिपोर्टों ने पहले उनकी एक छवि बनाई. फिर उन्हें एक आइकन या आदर्श में बदल दिया. नरेंद्र मोदी मीडिया की एक बहुत बड़ी खोज हैं.
मीडिया का मोदी से क्या संबंध है, इस सवाल को दूसरी तरह से पूछने की जरूरत है.
सवाल ये है कि मीडिया अपनी ही बनाई कृति को कैसे देखता है, जो अब प्रधानमंत्री बन चुकी है. इसका जवाब काफी चिंताजनक है. लोग मीडिया से आलोचक, तथ्यात्मक और कम से कम संतुलित होने की उम्मीद तो करते हैं.
लेकिन अफ़सोस है कि मीडिया मोदी का बहुत बड़ा फ़ैन है. मीडिया ने खुद के भीतर झांकना ही छोड़ दिया है. जहां मीडिया को लोगों तक सच पहुंचाना चाहिए था और आलोचक की भूमिका निभानी चाहिए थी वहीं वो मोदी के कट्टर राष्ट्रवाद की धुन में व्यक्ति पूजा करने लगा है.
अख़बारों में मोदी पर छपी रिपोर्ट और विज्ञापन एक जैसे ही लगते हैं. इससे लगता है कि मोदी भारत के किम इल संग बन गए हैं, जो उत्तर कोरिया के पहले सर्वोच्च नेता थे. ऐसे नेता जिनसे कोई सवाल नहीं किया जाता.
शुरुआत में किसी को भी नरेंद्र मोदी से सहानुभूति हो सकती है क्योंकि मीडिया ने उन्हें एक ऐसे शख़्स के तौर पर दिखाया है, जो बाहरी और एक साधारण चाय वाला होने के बावजूद भी दिल्ली के लुटियंस किले में दाखिल हुआ.
अब इस काल्पनिक कहानी का आकर्षण बनाए रखने के लिए इन बातों पर बार-बार ज़ोर दिया जाता है.
मीडिया विरोधाभासी तरीक़े से दोनों बातें कहता है, एक तरफ़ तो वो कहता है कि मोदी तो नए हैं, इसलिए उनका स्वागत करो, दूसरी तरफ़ वो उन्हें वक्त की पुकार बताता है.
ऐसा लगता है जैसे 2019 के चुनावों की घोषणा हो चुकी है. ये हालात अमित शाह को तो ख़ुश कर सकते हैं लेकिन मीडिया की संदेह और आलोचन करने और उसकी जांच करने की भूमिका को पूरा नहीं करते हैं.
मीडिया इस तरह व्यवहार करता है जैसे देश में मोदी के सिवा कुछ है ही नहीं. बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई जाने वालीं ये ख़बरें मीडिया पर सवाल उठाती हैं और उसके विश्लेषण पर संदेह पैदा करती हैं.
इस बात को साबित करने के लिए तीन-चार मामलों पर गौर करते हैं. पहला मामला निश्चित तौर पर नोटबंदी से जुड़ा है. मीडिया ने इसे भारत में मनाए जा रहे एक त्यौहार की तरह दिखाया.
हो सकता है कि मध्यम वर्ग ने शुरुआत में इसे भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई समझते हुए ख़ुशी मनाई हो. लेकिन, जल्द ही ये हक़ीक़त उनके सामने आ गई कि नोटबंदी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और नगदी की ज़रूरत वाले धंधों के ख़िलाफ़ एक लड़ाई थी.
मीडिया लोगों की परेशानी को अनदेखा करता रहा है. नोटबंदी नाम के इस त्यौहार में मीडिया ने इन व्यापक दिक्कतों के सामने अपनी आँख बंद रखी.
दूसरा, अगर मीडिया उस वक्त तुरंत नोटबंदी के नुकसान को न देख पाया हो तो भी वह कम से कम लंबे कुछ वक्त बीतने के बाद तो इसका सटीक विश्लेषण कर ही सकता था. लेकिन विश्लेषण में की गई ये बेईमानी इसकी रिपोर्टिंग की अवास्तविकता को दिखाती है.
अब विदेश नीति पर गौर करते हैं. नरेंद्र मोदी शिंजो आबे, व्लादीमिर पुतिन या डोनल्ड ट्रंप के साथ खड़े होकर एक बेहद आकर्षक दृश्य पैदा करते हैं और सभी को मोह लेते हैं. मीडिया भी इसमें भरपूर सहयोग देता है.
लेकिन, इस दौरान मीडिया इन चार देशों के नैतिक ख़ालीपन को देखना भूल जाता है.
नरेंद्र मोदी यमन, सीरिया और रोहिंग्या मुसलमानों के मसले पर चुप्पी साधे रहते हैं. एशिया को लेकर उनका विचार तय है. फिर भी मीडिया इसराइली नीति पर सवाल पूछे बिना इसराइल के मामले में मोदी के सहयोगी की भूमिका निभाता है. रक्षा सौदों में इसराइल की भागीदारी का स्वागत करता है.
इस तरह अपनी रक्षा पर ज़ोर देने वाले भारत को मीडिया और मध्यम वर्ग की तारीफ़ मिलती है.
अगर गौर करें तो मोदी ने चीन के मामले में तिब्बत को धमकाने और शर्मिंदा करने के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं किया है. बस पाकिस्तान के मामले में थोड़ा बहुत कुछ हासिल किया है.
लेकिन मीडिया विदेश नी​ति पर गंभीर नहीं दिखता है. इस मामले में मोदी का वास्तविक आकलन बहुत कम होता है. मीडिया के पास बहुत कम संदेह और सवाल हैं.
हम पाकिस्तान और चीन पर ख्याली जीत की खुशी मनाते हैं. जहां मीडिया वास्तविकता दिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था वहां, वो जी-हुज़ूरी में लगा है और लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से धोखा कर रहा है.
'मॉब लिंचिंग' को लेकर मोदी के रवैए पर मीडिया का नज़रिया और अधिक शर्मिंदा करता है. मीडिया मोदी की प्रतिक्रिया को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश करता है. मीडिया के पास कोई अलग नज़रिया न होना वाकई चिंता पैदा करता है. वो शख़्स जिसने कांग्रेस से कई जवाब मांगे हों वो अब घटनाओं पर न के बराबर ही प्रतिक्रियाएं दे रहा है. इस पर सवाल तो उठता ही है.
नरेंद्र मोदी की उपलब्धियों और कमज़ोरियों को लेकर मीडिया के ढुलमुल रवैए के कारण ये पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि विज्ञापन कहां ख़त्म होता है और मोदी का संतुलित मूल्यांकन कहां से शुरू होता है.
यहां तक कि मीडिया असम को लेकर भी चुप है और बस कुछ छुट-पुट विश्लेषण किए जा रहे हैं. यह नागरिक रजिस्टर को भारत की एक महान परंपरा की तरह दिखा रहा है.
इन पूरे हालातों के बीच देश में विरोध और मतभेद के लिए जगह बहुत कम रह जाती है.
उम्मीद है कि मीडिया बहुसंख्यकवाद की उंगलियों पर नाचने की बजाए अपनी असली भूमिका में लौटेगा.
मीडिया ने आपातकाल में एक अलग ही भूमिका निभाई थी. उम्मीद है कि मीडिया साल 2019 के चुनावों से पहले आलोचना और साहस की पत्रकारिता पर फिर से लौटेगा.
यह विरोध और लोकतंत्र का मीडिया पर एक कर्ज है.

Sunday, September 2, 2018

कर्नाटक निकाय चुनाव नतीजे LIVE: अब तक कांग्रेस ने जीती 560 सीटें, BJP नंबर 2

र्नाटक निकाय चुनाव के नतीजे आज घोषित किए जा रहे हैं. 102 शहरी निकाय सीटों पर मतों की गिनती शुरू हो गई है. विधानसभा चुनाव के बाद एक बार कांग्रेस और जेडीएस एक दूसरे के खिलाफ लड़े हैं. यही वजह है कि निकाय चुनाव में कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस के बीच कांटे का मुकाबला है. बता दें कि 31 अगस्त को निकाय चुनाव के लिए वोट डाले गए थे. 
अभी तक 2664 वार्डों में से कुल 1412 वार्ड के नतीजे सामने आए हैं. इनमें से कांग्रेस ने 560, बीजेपी ने 499 और जेडी (एस) ने 178 सीटों पर जीत दर्ज की है. 
राज्य के 105 शहरी निकाय क्षेत्र पर चुनाव हुए हैं. इनमें 29 शहर नगरपालिकों, 53 नगर पालिकाओं. 23 नगर पंचायत और 135 कॉर्पोरशन वार्ड पर नतीजे आ रहे हैं.
इन सभी सीटों के निकाय चुनाव के वार्ड के लिए 8,340 उम्मीदवार थे. वहीं कांग्रेस के 2,306, बीजेपी के 2,203 और 1,397 जेडीएस के थे. इन चुनावों में  का इस्तेमाल किया गया था.
दिलचस्प बात ये है कि इस चुनाव में कई उम्मीदवारों को पार्टियों ने टिकट नहीं दी थी इसलिए वह निर्दलीय चुनाव लड़े थे. ऐसे में इन निर्दलीय के नतीजे भी बहुत मायने रखेंगे.
बता दें कि 2013 के निकाय चुनाव में 4976 सीटों में से कांग्रेस 1960 सीटें जीती थी. जबकि बीजेपी और कांग्रेस ने बीजेपी और जेडीएस ने 905 सीटों पर जीत हासिल की थी. इसके अलावा 1206 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज करने में सफल थे. हिंदू धर्म में कृष्ण जन्माष्टमी का खास महत्व है. पूरे देश में ये पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. आइए जन्माष्टमी के पवित्र अवसर पर जानते हैं कि कृष्ण भगवान और राधा ने प्यार होने के बावजूद भी शादी क्यों नहीं की थी?जब भी प्रेम की मिसाल दी जाती है तो श्रीकृष्ण-राधा के प्रेम का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है. राधा-श्रीकृष्ण के प्रेम को जीवात्मा और परमात्मा का मिलन कहा जाता है. सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ियां राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी पढ़ती चली आ रही हैं लेकिन जब भी हम राधा-श्रीकृष्ण की प्रेम कहानी सुनते हैं तो मन में यही सवाल आता है कि श्रीकृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया? इसके पीछे कई तरह की व्याख्याएं दी जाती हैं. आइए जानते हैं उन सभी कहानियों के बारे में...कुछ विद्वानों के मुताबिक, राधा-कृष्ण की कहानी मध्यकाल के अंतिम चरण में भक्ति आंदोलन के बाद लोकप्रिय हुई. उस समय के कवियों ने इस आध्यात्मिक संबंध को एक भौतिक रूप दिया. प्राचीन समय में रुक्मिनी, सत्यभामा, समेथा श्रीकृष्णामसरा प्रचलित थी जिसमें राधा का कोई जिक्र नहीं मिलता है. 3228 ईसा पूर्व देवकी पुत्र श्रीकृष्ण का जन्म हुआ. कुछ समय तक वह गोकुल में रहे और उसके बाद वृंदावन चले गए थे.श्रीकृष्ण राधा से 10 साल की उम्र में मिले थे. उसके बाद वह कभी वृंदावन लौटे ही नहीं

श्रीकृष्ण और राधा एक दूसरे रूप से आत्मीय तौर पर जुड़े हुए थे इसीलिए हमेशा उन्हें राधा-कृष्णा कहा जाता है, रुक्मिनी-कृष्णा नहीं. रुक्मिनी ने भी श्रीकृष्ण को पाने के लिए बहुत जतन किए थे. वह अपने भाई रुकमी के खिलाफ चली गई थीं. रुक्मिनी भी राधा की तरह श्रीकृष्ण से प्यार करती थीं, रुक्मिनी ने श्रीकृष्ण को एक प्रेम पत्र भी भेजा था कि वह आकर उन्हें अपने साथ ले जाएं.. इसके अलावा कहीं यह जिक्र भी नहीं मिलता है कि राधा ने कभी द्वारका की यात्रा की हो. दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रन्थों में राधा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है. राधा ने श्रीकृष्ण से विवाह करने से किया था इनकार-एक मत यह भी है कि राधा ने श्रीकृष्ण से विवाह करने से मना कर दिया था क्योंकि उन्हें लगता था कि वह महलों के जीवन के लिए उपयुक्त नहीं हैं. राधा एक ग्वाला थीं, जबकि लोग श्रीकृष्ण को किसी राजकुमारी से विवाह करते हुए देखना चाहते थे. श्रीकृष्ण ने राधा को समझाने की कोशिश की लेकिन राधा अपने निश्चय में दृढ़ थीं. राधा-श्रीकृष्ण के विवाह नहीं करने के पीछे एक व्याख्या ऐसी भी की जाती रही है.एक अन्य प्रचलित व्याख्या के मुताबिक, रा
धा ने एक बार श्रीकृष्ण से पूछा कि वह उनसे विवाह क्यों नहीं करना चाहते हैं? तो भगवान श्रीकृष्ण ने राधा को बताया कि कोई अपनी ही आत्मा से विवाह कैसे कर सकता है? श्रीकृष्ण का आशय था कि वह और राधा एक ही हैं. उनका अलग-अलग अस्तित्व नहीं है.राधा को यह एहसास हो गया था कि श्रीकृष्ण भगवान हैं और वह श्रीकृष्ण के प्रति एक भक्त की तरह थीं. वह भक्तिभाव में खो चुकी थीं, जिसे कई बार लोग भौतिक प्रेम समझ लेते हैं. इसलिए कुछ का मानना है कि राधा और श्रीकृष्ण के बीच विवाह का सवाल पैदा ही नहीं होता है, राधा और श्रीकृष्ण के बीच का रिश्ता एक भक्त और भगवान का है. राधा का श्रीकृष्ण से अलग अस्तित्व नहीं है. विवाह के लिए दो लोगों की आवश्यकता होती है.कुछ लोग इसकी इस तरह से भी व्याख्या करते हैं कि सामाजिक नियमों ने राधा-कृष्णा की प्रेम कहानी में खलनायक की भूमिका निभाई. 
राधा और श्रीकृष्ण की समाजिक पृष्ठभूमि उनके विवाह की अनुमति नहीं देती थी.राधा को ठीक तरह से समझने के लिए रस और प्रेम के रहस्य को समझना होगा. ये आध्यात्मिक प्रेम की आनंददायक अनुभूति है. एक व्याख्या के अनुसार, कृष्ण और राधा ने बचपन में खेल-खेल में शादी की थी जैसे कि कई बच्चे शादी का खेल खेलते हैं, लेकिन असलियत में दोनों का विवाह कभी नहीं हुआ. वैसे भी उनका प्यार वैवाहिक जीवन के प्यार से ज्यादा स्वाभाविक और आध्यात्मिक था.